मंगलवार, 31 जुलाई 2012

हिंसा के विरुद्ध साहित्‍य



हिंसा के  विरुद्ध साहित्‍य ( Literature against Violence ) : साहित्‍य का यह रूप समझने के लिए हमें पहले दोनों को अलग-अलग करके देखना होगा । हिंसा क्‍या है  ?  और साहित्‍य क्‍या है ? साहित्‍य हम सभी जानते हैं, यहॉं बैठा हर व्‍यक्ति लेखनी से साहित्‍यकार है और दिल से भी । फिर बारी आती है हिंसा की । हिंसा क्‍या है ? इस शब्‍द के प्रति विभिन्‍न नज़रिये और हिंसा की परिभाषाऍं इतने विविध हैं जितनी उत्‍तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम दिशाऍं । हिंसा की अतिरेकी अवधारणा से लेकर सत्‍य की रक्षा के लिए हिंसा को धर्म एवं नीतिसम्‍मत मानना इसका एक व्‍यापक फलक है और चूँकि साहित्‍य तो मानव-सभ्‍यता के विकास के साथ ही मौखिक, चैत्रिक, अलिखित, लिखित आदि सोपानों में जीता रहा है ।  इसमें सारे प्राचीन, प्राग्‍-ऐतिहासिक, एवं आधुनिक साहित्‍य को सम्मिलित किया जा सकता है ।  चूँकि भारत-वर्ष की मूलभूत विशिष्‍टता, गुणधर्म या जीन; धर्म एवं अध्‍यात्‍म रहा है और  अध्‍यात्‍म से संबंधित विश्‍व का उत्‍कृष्‍ट  साहित्‍य हिंसा के परिणामस्‍वरूप ही नष्‍टीकरण की भेंट चढ़ जाने के बावजूद आज तक प्रचुर मात्रा में उपलब्‍ध है और इससे भी आगे बढ़कर उत्‍तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक,  और  आगे भौगोलिक सीमाओं को पार कर थाईलैण्‍ड, कम्‍बोडिया, चीन, जापान, श्रीलंका, नेपाल, सुदूर ईरान आदि तक में जनमानस एवं रीति-रिवाजों में भी व्‍याप्‍त है ।
जैन साहित्‍य में हिंसा की सूक्ष्‍मतम परिभाषा मिलती है जो कहती है मन, वचन कर्म से किसी को दु:ख पहुँचाना हिंसा है । ईसा के अनुसार मन में हिंसा का विचार हिंसा ही है । इससे आगे बढ़कर हम जब धर्म एवं अध्‍यात्‍म के अनूठे और इकलौते उत्‍कृष्‍ट ग्रंथ यानी गीता की बात करते हैं तो हिंसा की बड़ी तर्कसंगत, न्‍यायसंगत, और व्‍यापक व्‍याख्‍या  मिलती है जो एक ओर चींटी की हत्‍या को भी हिंसा मानती है, कर्मों के सिद्धान्‍त से जोड़ती है, दूसरी ओर कहती है कि अन्‍याय के विरुद्ध शस्‍त्र उठाना और धर्म की रक्षा करना हर मानव का धर्म है ( यहॉं धर्म शब्‍द व्‍यापक अर्थ रखता है, संकीर्ण नहीं ); और इस तरह निष्‍काम कर्म के लिए प्रेरित करती है । कब हिंसा हिंसा नहीं और कब अहिंसा भी हिंसा है, इसकी समग्रतम व्‍याख्‍या गीता नाम का हमारा पवित्र साहित्‍य बता चुका है हज़ारों वर्ष पहले ही ।
भारत की आज़ादी की दिशा में हिंसा के इन्‍हीं विपरीत नज़रियों ने महति भूमिका निभायी है ।  जहॉं गॉंधी जी ने अहिंसा परमोधर्म: पर ज़ोर दिया तो इसके साथ ही एक परन्‍तुक भी जोड़ दिया कि अन्‍याय के खि़लाफ़ आवाज़ उठाना हिंसा नहीं है । अन्‍याय सहकर चुप रहना कायरता है । हिंसा अहिंसा का यह अर्थ ! कायरता बुरी है इसलिए वीर बनिये । कैसे वीर ? ऐसे वीर जो अन्‍याय के विरुद्ध आवाज़ तो उठाऍं और हँसते हुए एक गाल पर मार खाकर दूसरा गाल भी आगे कर दें- लेकिन अपने सिद्धान्‍त और उद्देश्‍य पर अडिग रहते हुए सीने पर सामने से गोली खाने को तैयार रहें । लोकमान्‍य तिलक, सुभाष चन्‍द्र बोस, सावरकर, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, आज़ाद आदि हिंसा की गीता वाली समग्र परिभाषा को जीते रहे । और इस हिंसा के जवाब की हिंसा में भी हम यह सुनते रहे कि-
सर फ़रोशी की तमन्‍ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है ।

हिंसा अहिंसा का विचार साहित्‍य में आज़ादी तक प्रत्‍यक्ष तौर पर बड़े मायने रख रहा था क्‍योंकि आज़ादी के लिए क्रान्ति एक सम्‍पूरक और अति आवश्‍यक घटक है फिर चाहे वह वैचारिक क्रान्ति हो, सैद्धान्तिक क्रान्ति हो या फिर थोपी गई ख़ूनी क्रान्ति जिसके साक्षी रूस, चीन और हाल में अफ़गानिस्‍तान एवं ईराक आदि देश बने हैं । यूरोपीय देशों में सत्‍ता-परिवर्तन वैचारिक क्रान्ति का बिन्‍दु रहा है मुख्‍यत: वर्तमान में ।
साहित्‍य को शुरुआत से ही विभिन्‍न खांचों में बॉंटने की  स्‍वाभाविक सामाजिक परम्‍परा रही  है । विचारों के वैभिन्‍नय से ही जैन-साहित्‍य, बौद्ध-साहित्‍य आदि, फिर वर्तमान दौर में दलित साहित्‍य, स्‍त्री-विमर्श; और अब नक्‍सली साहित्‍य,  वाम-साहित्‍य जैसे साहित्‍यिक खांचों का जन्‍म हुआ है । अब तो साहित्‍य भी हिंसक होने  लगा है । कई स्‍थानों पर हिंसक-साहित्‍य बरामद होता है । समझने की बात है कि साहित्‍य अपने आप में हिंसक हो सकता है या साहित्‍य जिस विचार का वाहक है वह हिंसक या अहिंसक या उदासीन (न्‍यूट्रल) होता है !    
हॉं, इस विषय में एक स्‍पष्‍ट प्रतीति अवश्‍य है । हिंसा की सराहना या समर्थन सामान्‍य जन या हम नहीं करते । मेरे विचार में साहित्‍य का उद्देश्‍य हिंसा को प्रोत्‍साहन देना नहीं होना चाहिए । हॉं, वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात तो साहित्‍य करता ही रहा है सदियों से । साहित्‍य समाज का आईना भी है और मार्गदर्शक भी; तो साहित्‍य को, मार्गदर्शन का काम समाज का प्रतिबिम्‍ब दिखाते हुए करना होगा । साहित्‍य नकारात्‍मक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता । हॉं, साहित्‍य का धर्म है अन्‍याय के विरुद्ध सामाजिक क्रा‍न्ति के पक्ष में वह सकारात्‍मक हिंसा का पक्ष ले सकता है । यह पूर्णत: निर्भर करता है लेखक या रचनाकार की स्‍वयं की विचारधारा, देशकाल एवं परिस्थिति पर । उग्रता या सौम्‍यता व्‍यक्ति-विशेष का गुण है जो भाषा का आधार लेकर साहित्‍य में परिणत होता है और फिर वह साहित्‍य उग्र या सौम्‍य, हिंसक या अहिंसक कहा जाने लगता है ।
लेकिन जब हम बात करते हैं जि़म्‍मेदार लेखक या साहित्‍य की तो  एक जि़म्‍मेदार लेखक या साहित्‍यकार का धर्म है कि वह अपने साहित्‍य से हिंसा को बढ़ावा न दे बल्कि उसे ख़त्‍म करने के वास्‍ते सौहार्दपूर्ण साहित्‍य की रचना करे जो आहत तन,  मन और मस्तिष्‍क पर मलहम का काम कर सके यही सच्‍चा लेखक-धर्म है । ऐसा नहीं कि ऐसा साहित्‍य अब लिखा नहीं जा रहा । ख़ूब लिखा जा रहा है जो गूंगों की आवाज़ भी बना है । आज हम सेमिनार इसी विषय पर कर रहे हैं और हमारी लेखक बिरादरी यहॉं उपस्थित है तो आज हम आहवान करें एक-दूसरे को; और सेमिनार के माध्‍यम से बाहर भी यह संदेश दे सकते हैं कि कम से कम हमारा साहित्‍य सैद्धान्तिक रूप से हिंसा को बढ़ाने वाला नहीं बल्कि हिंसा को कम करने वाला होगा । यहॉं हिंसा से तात्‍पर्य शारीरिक हिंसा के साथ ही शाब्दिक और मानसिक हिंसा  से भी है ।
हॉं, गीता के संदेश की तरह हर मानव का धर्म है कर्म के सिद्धान्‍त का पालन करना । और अगर सत्‍य की स्‍थापना के लिए आवश्‍यक हो तो लेखनी रूपी शस्‍त्र को हिंसा का भार उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । जब सत्‍य की स्‍थापना के लिए ईश्‍वर अवतार ले सकता है तो हम जीवितों का भी तो कुछ कर्म का  धर्म बनता ही है । कृष्‍ण ने यही संदेश दिया है गीता में, जो मेरी  दृष्टि में समग्रतम है-  
  ‘’यदा-यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लार्निभवति भारत
अभ्‍युत्‍थांधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम 
 परित्राणाय साधूना विनाशाय च दुष्‍कृतां
 धर्म संस्‍थापनार्थाय सम्‍भवामि युगे-युगे’’
                             



‘’उपरोक्‍त पर्चा इंडियन सोसायटी ऑफ़ ऑथर्स (InSA) द्वारा  हिंसा के विरुद्ध साहित्‍य विषय पर 28  जुलाई, 2012 को गॉंधी शान्ति प्रतिष्‍ठान में आयोजित   सेमिनार में लेखिका द्वारा पढ़ा गया ।‘’


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