सामूहिक अपराध या सामूहिक अपराध के प्रति मूक
सहमति/मूकदर्शिता/उदासीनता मानसिक बीमारी है या अपराधियों से डर ? सामूहिक असंगठित अपराध में
भागीदारी/इसकी स्वीकार्यता क़बीलायी संस्कृति है या मानवीय सभ्यता ? क्या भीड़ में जानवर या हैवान बन
जाना हमारा/हमारे पुरुषों का असली चारित्रिक रंग है ? (ये बीस-बाईस साल के बच्चे या
नवयुवक नहीं हैं, बल्कि बीमार पुरुषत्व के बीज हैं जो
पेशेवर एवं संगठित अपराधी न होते हुए भी सामाजिक घटक रूपी पेड़ में तब्दील होकर आबो-हवा को कितना और विषाक्त करेंगे सहज ही
आकलन किया जा सकता है । उस बच्ची में भीड़रूपी क्रूर पुरुष मानसिकता आखि़र क्या
खोज रही थी ? बहुत दुखद और अन्तत: हताश कर देने
वाला घटनाक्रम है और इसकी पराकाष्ठा है ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति । मैं
इन्तज़ार कर रही हूँ (और साथ ही खुद से सवाल भी ) कि क्या इन लड़कों की
बहनें माताऍं और पिता या भाई खुले तौर पर
अपने घर के बच्चों की इस हरकत की कड़ी
भर्त्सना करेंगे और उन्हें स्वयं अपनी ओर से दण्ड के लिए प्रस्तुत करके
सामाजिक इकाई के रूप में अपना मूल और अहम नैतिक दायित्व निभायेंगे ?
आइये खुद से
पूछें हम कि- "संस्कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं ? "
काश उनके मां बाप भाई बहिन इतना सोच पाते,यदि ऐसा हुआ होता तो इनमें यह संस्कार आते ही नहीं.अभाव तो इस बात का ही है.क्या अपनी बहन के साथ ऐसा ही सलूक करना उन्हें गवारा होगा?नहीं ,तब वे मारपीट ,और किसी भी हथकंडे को अपनाने में नहीं चूकेंगे.
जवाब देंहटाएंमैं भरोसा करना चाहती हूँ कि उन सभी परिजनों में एक साथ संस्कार मरे नहीं होंगे हॉं प्रसुप्त अवश्य होंगे । काश इसके मूल में अनभिज्ञता और लापरवाही तो हो लेकिन संवेदनशून्यता नहीं । ईश्वर उन्हें इतनी संवदेनशीलता बख्शें कि वे अपने नैतिक रूप से सजीव होने का प्रमाण दें आत्मिक विरोध जताकर ।
हटाएंबिलकुल ठीक कहा आपने इस सबके लिये कहीं न कहीं अभिभावक भी ज़्म्मिदार है फिर चाहे वो लड़कियों के हों या लड़कों के मगर सवाल यह भी तो उठता है कि आखिर हमारे समाज का पुरषार्थ उस वक्त कहाँ था। जो यह सब होते देख भी मौन रहा... करने वाले भी पुरुष और देखने वाले कि भीड़ में भी रहे होंगे पुरुष, तो ऐसे हालातों में बीमार सारी पुरुष जाति ही हुई।
जवाब देंहटाएंलगता तो ऐसा ही है लेकिन सारी पुरुष जाति बीमार है, कहना ज़्यादती है शायद, मेरी नज़र में । लेकिन हॉं, पुरुष होने का विशिष्ट भाव, दम्भ और उच्छ़ंखल पुरुषत्व एक ऐसी बीमारी है जो एक पुरुष को इनसान भी नहीं रहने देती और दुर्भाग्य से यह बीमारी कम नहीं समाज में । जि़म्मेदारी किसकी और चूक किसकी ! अभिभावक, पुलिस और अपराधी; पीडि़त भी, पीड़क भी, मूकदर्शक भी, सभी तो इसी व्यवस्था की उपज हैं सुधारने का प्राधिकार रखने वाले भी और जिन्हें सुधारे जाने की आवश्यकता है वे भी सभी एक जैसी व्यवस्था में पले-पुसे हैं । बेशक समाज का सम्पूर्ण तंत्र जर्जर अवस्था में आने को तैयार बैठा है बल्कि एक हद तक पहुँच चुका है इस हद तक । लेकिन इसी लिए मानव, सभ्यता के सोपान को बनाये रखने के वास्ते एक तंत्र, नियम-व्यवस्था और मानक तय करता है और उस में बंधकर रहने के प्रति सजग भी रहता है ताकि अपने अधिकारों के साथ-साथ वह या दूसरा उच्छृंखल होकर दूसरे की ज़मीन उसके पैरों तले से खींचने का दुस्साहस न करे इसी में इसका, उसका और सभी का हित निहित है ।
हटाएंमहिलाओं के प्रति अपराध को लेकर पुलिस का जो रवैया है,ऐसी घटनाएं उसी का नतीज़ा हैं। जो शहर जितना बड़ा,उसमें ऐसी संभावना उतनी अधिक क्योंकि हर कोई अपने में सिमटा है,सामाजिकता वहां सिर्फ क़िताबी चीज़ है।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने सामाजिकता या तो कि़ताबी चीज़ है, ओल्ड फैशन्ड है या सफ़ोकेशन । यह बात अलग है कि ऐसा होना नहीं चाहिए । एक बात और है- बड़े शहर में इसकी सम्भावना अधिक अवश्य इसलिए है क्योंकि हर दिन की जद्दोजहद में व्यक्ति को सिर्फ़ अपने दैनन्दिन कार्यों के लिए भी समय कम पड़ जाता है । दिन और रात के दोनों सिरों को मिलाने में ही जि़न्दगी के दिन तमाम हुए जाते हैं और अतिरिक्त प्रयास लेकर सामाजिकता निभाने की ऊर्जा अव्वल सबमें होती नहीं और कभी-कभी बचती नहीं ।
हटाएंपुलिस का रर्वया ही ऐसी घटनाओं का नतीजा है, इस से पूरी तरह कनविंस्ड नहीं हूँ हॉं कन्फ़यूज़ अवश्य हूँ कि क्या सच में ऐसा ही है या दूसरे कारण भी उतने ही भागीदार हैं ? लेकिन यह सच है कि अगर पुलिस का रवैया नकारात्मक न हो तो बाक़ी दूसरे फ़ैक्टर उतने प्रभावी नहीं रह पाऍंगे ।