पूरे शहर में हड़कम्प मचा हुआ था कि आखि़र सीधे-सादे, मृदुल और सरल से दिखने वाले युवा डॉक्टर दम्पति निधि
और राजन को पुलिस ने गि़रफ्तार किया है । गर्मा-गर्म चर्चाऍं चल रही हैं । मीडिया
के तमाम चैनलों पर सनसनीखेज़,
हैरतंगेज़ विशेष-कार्यक्रम सीधे ग्राउण्ड ज़ीरो से लाइव कवरेज के तौर पर चल रहे
हैं - ‘यही है वह घर जहॉं से डॉक्टर दम्पति……….........……..’ फिर अगले चैनल पर- ‘ हम आपको बताऍंगे वो कमरा,
वो ऑपरेशन थियेटर जहॉं से ये दोनों डॉक्टर............................ ‘ फिर तीसरे चैनल
के स्टूडियो में पूरा पैनल बैठा है । पैनल में एक मनोचिकित्सक, एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक राजनेता बैठे हुए हैं,
एक अभिनेत्री को भी बैठा रखा है,
जिसका ध्यान विषय पर कम और अपने कपड़ों पर ज़्यादा है; एक वकील भी है जो क़ानूनी संभावनाओं को गिना रहे हैं । लाइव इंटरव्यू भी
चल रहे हैं । फील्ड पर पुलिस अधिकारी से सवाल दागते रिपोर्टर एक अनोखे अपराध के
बारे में उतावले होकर पूछ रहे हैं- सर.......... सर………! बताइए ............ आपको कैसे
पता लगा कि ये डॉक्टर दम्पत्ति इस घटना को अंजाम दे रहे थे................ और
ऐसा कब से चल रहा था ........ ?
सर.......... सर………क्या आरोपियों ने अपना गुनाह कु़बूल कर लिया है ?
गुनाह ही कुछ
अजीब सा था जिसे अमानवीय तो कह सकते हैं लेकिन फिर भी गुनहगारों से नफ़रत नहीं दिल
में ? ऐसा क्यों ? चारों तरफ़ एक
अजीब सी गहमागहमी थी जिसमें गुनाह की चर्चा तो ज़ुबान पर थी लेकिन सामान्यत:
लोगों के हृदय में एक अनकहा सन्तोष था । क्या
थी यह घटना, क्या था यह गुनाह, जिसके लिए युवा डॉक्टर दम्पति
को गि़रफ्तार किया गया था ?
ज़रा पीछे
चलते हैं और निधि तथा राजन की कहानी उन्हीं
की शुरुआत से शुरु करते हैं । निधि और राजन दोनों ही अनाथाश्रम में पले-बढ़े थे
लेकिन सौभाग्य से एक धनी परिवार ने उन दोनों और अन्य कुछ बच्चों की पढ़ाई का
ख़र्च उठा लिया था । निधि और राजन बचपन के स्वाभाविक दोस्त तो थे ही, उनमें पटती भी बहुत थी
बचपन से । प्रतिद्वन्द्विता और वैचारिक झगड़े न के बराबर रहे दोनों के बीच
बचपन से ही । लगता था दोनों एक दूसरे का आईना है । एक को जान लो तो दूसरे को अपने
आप जान जाओगे । मेहनती और पढ़ाई के प्रति लगन भी पक्की थी दोनों की । दोनों ने
साथ ही मेडिकल-प्रवेश की परीक्षा दी थी, साथ ही स्कॉलरशिप ली,
साथ ही इंटर्नशिप की और साथ ही डॉक्टरी की आगे की पढ़ाई भी की । इसके बाद एक ही
हॉस्पिटल में साथ नौकरी भी की । इतने लम्बे समय तक का साथ, विवाह का नैसर्गिक साथ भी बन गया और देखिए आज दोनों एक
साथ ही गिरफ्तार होकर जेल में बंद हैं अपराधी बनकर ।
अभी दो
साल पहले ही दोनों ने अस्पताल की नौकरी छोड़कर अपना निजी क्लीनिक खोल लिया था ।
दोनों का अपने आश्रयदाता अनाथालय में लगातार आना-जाना था । वहॉं के सभी बच्चों और
कर्मचारियों का इलाज निधि और राजन पारिवारिक दायित्व समझकर करते रहे थे हमेशा ।
दो साल पहले की ही घटना थी । अनाथालय की एक नाबालिक बच्ची के इलाज के दौरान अवाक्
कर देनेवाली दास्तान से रुबरु हुई थी
निधि । वह बच्ची जिस स्कूल में पढ़ती थी, वहॉं के चौकीदार ने उस फूल को अपनी हवस से मसल दिया था । निधि को यह बात
काफी समय बाद बच्ची से बातचीत के दौरान पता लगी । निधि ने राजन को बताया था जैसा
कि वे दोनों हमेशा शेयर करते थे सब कुछ । दोनों बच्ची के स्कूल भी गये लेकिन
चौकीदार चम्पत हो चुका था और स्कूल प्रशासन को तो न घटना की ख़बर थी और न वे इसे
सच मानना भी चाहते थे । आखि़र स्कूल की प्रतिष्ठा की कीमत को उस बच्ची की घायल
अस्मिता से भी से भी ज़्यादा ऑंकने की मानसिकता थी उनकी । निधि और राजन के सामने इतने चुनौतीपूर्ण क्षण
कभी नहीं आए थे । हालांकि उन्होंने जीवन संघर्ष में बहुत कुछ देखा झेला अवश्य था
। काफी मानसिक संघर्ष और ऊहा-पोह के बाद अन्तत: दोनों ने उस वक्त चुप रहना ही
उचित समझा । हॉं !
उस बच्ची की सामान्य मानसिक हालत बहाल करने का दायित्व
अवश्य निभाया दोनों ने । लेकिन एक गिल्ट काटती रहती थी दोनों को हमेशा । फिर
ख़बरों में भी ऐसी घटनाऍं पिछले डेढ़-दो वर्ष के दौरान कुछ ज़्यादा ही सामने आने
लगी थीं । दोनों अक्सर इस बारे में चर्चा
करते । निधि कई तीखे सवाल भी करती एक पुरुष के रूप में राजन से और दोनों मिलकर
विश्लेषण करते किसी बलात्कारी की मन:स्थ्िति का । कभी यह निष्कर्ष निकलता कि
ऐसे लोग एकदम सामान्य होते हैं लेकिन बाहरी
उत्तेजक माध्यमों के दौर में अपनी भावनाओं का सम्मानजनक आउटलेट न कर पाने की
विवशता और अज्ञानता दीर्घकालिक असर वाली एक तात्कालिक वजह होती है । ऐसे लोग
पुरुषप्रधान मानसिकता में विकसित बच्चे होते हैं जिनके मन में अन्तरतम तक बैठा
है कि नारी या मादा एक वस्तु है और जैसे
वे पेस्ट करते हैं,
नशा करते हैं, खाते-पीते हैं वैसे ही भोग्य है नारी । वो दिन गये जब हम
पढ़ते थे “योनी नहीं रे नारी’’
। आज-कल तो फिल्मों से लेकर विज्ञापन और खेल तक में नारी एक जीती जागती इनसान कम प्रोडक्ट ज़्यादा नज़र आती है
। कभी-कभी यह निष्कर्ष निकलता कि जिसे हम
अपराधी बलात्कारी मान रहे हैं वे स्वयं किसी परिस्थितिवश हीन भावना से ग्रस्त
और कहीं-कहीं मानसिक रूप से बीमार रोगी हैं जो पीडि़त भी हैं और पीड़क भी और कहीं न कहीं उन्हें भी इलाज की ज़रूरत है ।
निधि कहती कि यदि ये रोगी हैं तो क्या इन्हें दूसरों का जीवन
ध्वस्त कर देने का अधिकार दिया जा सकता है और क्या इस कुकृत्य को माफ़ किया जा
सकता है ? यह तो उसी जि़न्दा बम की
मानिन्द हैं जो फटेंगे तो दूसरे का भी और ख़ुद का भी विनाश ही करेंगे । और
ऐसे जि़न्दा बमों को डिफऱ्यूज़ करना
नैतिक कर्तव्य नहीं है मानवता का ?
निधि संजय दत्त की लम्हा फि़ल्म का उदाहरण देते हुए कहती कि राजन बताओ एक अबोध
बालक जिसे न यह पता है कि ईश्वर नाम की
कोई चीज़ होती है या नहीं,
स्वर्ग-नर्क की अभिकल्पना होती क्या है और न जिसे यह पता है कि अल्लाह और ईश्वर
या ईसा, वास्तव में क्या है या इनमें कोई फर्क है भी
या नहीं और जो कुछ उसे सिखाया जा रहा है वह धर्म है या अधर्म है, शिक्षा है या
अशिक्षा; जो उसे शिक्षा दे रहे हैं
वे शिक्षक हैं या कसाई या मौत के ठेकेदार; जिसे यह सब, कुछ भी पता नहीं है । बस
उसे तो कहा गया है कि स्वर्ग की चाबी एक रिमोट का बटन है, जिसे दबाते ही वह स्वर्ग में पहुँच जाएगा; उसे आत्मघाती
बम बना दिया गया है । तथाकथित स्वर्ग की चाबी के बटन की ओर कुछ पवित्र-से शब्द
बड़बड़ाते और रिमोट का बटन दबाने की कोशिश करते उस मासूम को संजय दत्त द्वारा गोली
मार देना उचित था या उसे ऐसा करने से न रोकना और सैकड़ों लोगों की जान चले जाते
देखना ? सिर धुनने लेने वाले सवाल होते वे और उसके जवाब भी सिर पीट लेने वाले ही होते । इसी कश्मकश और आत्मसंघर्ष
से जूझते निधि और राजन आज-कल नर के रूप में आदमी की चरमवादी मनोवृत्ति की
दुघर्टनाओं की बहुतायती की ख़बरों से दो-चार भी हो रहे थे । राजन निधि को समझाता
कि सदियों से जो पुरुषवादी मानसिकता है, आज के विकृत दौर में जिन पुरुषों को मानसिक रूप से बीमार कर देती है सेक्स के प्रति, और जिनका नियंत्रण स्वयं पर कमज़ोर होता है,
तथा चूँकि वे
अपने से शारीरिक रूप से निर्बल व्यक्ति पर ही हावी हो सकते हैं अत: महिलाऍं एवं बच्चियॉं उनका आसान शिकार बन जाती हैं । फिर निधि सवाल करती कि टीन-एज के
लड़के, प्रौढ़, बुड्ढे सब तो एक ही तरह से बीमार हैं ! क्या कोई क्राइटेरिया है इन जि़न्दा लिंग बमों का कि
बुड्ढा बम ऐसा नहीं करेगा और मिनी बम वैसा नहीं करेगा ?
फिर यह चर्चा होती कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज में
महिलाऍं हमेशा से पुरुषों के अहं को सन्तुष्ट
करने का ज़रिया रही है । नारी मात्र भोग्या
है पुरुष की नज़र में । नहीं तो दुनिया के एक भी पिता को आप अपनी पुत्री या
पुत्री-स्वरूप बच्चियों पर अपनी हवस थोपने और उनकी मासूम अस्मत कुचल देने के बाद
जीवित नहीं देख पाते क्योंकि वह स्वयं शर्म से गढ़कर मर जाता । तो क्या बेशर्म
है हर ऐसा नर, जो लिंग के रूप में निकृष्टतम
बम लिए है ? जो हर वर्ग की नारी-
बुज़ुर्ग, जवान, बालिक,
नाबालिग यहॉं तक की 2-4
साल तक की मासूम बालशिशु तक को अपना नैसर्गिक शिकार मानता है ? निधि कहती- राजन तुम भी तो एक पुरुष ही हो ! हर पुरुष ऐसा तो नहीं होता ! राजन कहता-निश्चय ही नहीं होता लेकिन दुनिया में ऐसे पुरुषों का प्रतिशत
बेशक न्यूनाधिक हो,
लेकिन बढ़ता जा रहा है । पीडि़तों में क्या किसी भी लड़की का पिता या भाई इस ख़बर
को हलके तौर पर ले सकता है कि 24 घण्टे में पॉंच बलात्कार एक ही शहर में और
उनमें से भी तीन बच्चियॉं ? निधि
कहती- बात प्रतिशत के बढ़ने-घटने तक सीमित नहीं है । जिस के साथ घटती है यह घटना
और जो दूसरे संवेदनशील देख/सुन कर भुगतते हैं ऐसी त्रासदी तथा इससे आगे बढ़कर ऐसी
घटनाओं की पुनरावृत्ति पुन: प्रेरित करती है अगली पुनरावृत्ति के लिए । फिर पुलिस-व्यवस्था
की तमाम विडम्बनाओं के बावजूद पुलिस हमारे और हमारे पड़ोसी के घर चौकीदारी का काम
नहीं कर सकती । पड़ोसी को तो पड़ोसी धर्म निभाना ही होगा । आखि़रकार कहने के लिए
हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं जहॉं
मानवीय-मूल्य सर्वाधिक अहम हैं । पर हम भी ऐसे हाथ पर हाथ रखकर कैसे बैठ सकते हैं
! कैसे सह लें इन घटनाओं को ? क्या हम भूल पाये हैं अपने अनाथालय की उस मासूम के दर्द
को ? देखा नहीं गाल पर चुटकी
भी लो तो चहकते-चहकते कैसे चुप हो जाती है अचानक ?
चर्चा के दौरान ही अनाथालय से केयर-टेकर सूरज का फोन आता
है राजन के मोबाइल पर कि सुधा की तबीयत ख़राब है । पिछले दो दिन से स्कूल भी नहीं
जा रही है, बुख़ार भी है और डरी-सहमी
भी है । पूछने पर कुछ बोलती भी नहीं । शायद अपनी निधि दीदी को ही कुछ बताए । आप
दोनों तुरन्त आ जाइए । निधि भी यह सुनकर किसी अनजान आशंका से अन्यमनस्क हो उठती
है । निधि और राजन पहुँचते हैं अनाथालय । आठ वर्षीय सुधा को अकेले में बहलाती निधि
उससे घुमा-फिरा कर पूछती है । सुधा डरकर धीरे-से बताती है कि वो जो रिक्शे वाले
अंकल है न ! ………… (चुप्पी)..... वो न ...... सब बच्चों को छोड़कर मुझे बाद में
छोड़ते हैं और फिर....... और फिर.....
कहते-कहते रोने लगती है सुधा । निधि पूछती
है उससे परेशान होकर और फिर क्या सुधा बेटा ! लेकिन लाख पूछने पर भी बता नहीं पाती सुधा हालांकि निधि को उसके हाव-भाव
और सहमी ऑंखों से अंदाज़ा लगाते देर नहीं लगती । सुधा कहती है – निधि दीदी आप सूरज
अंकल से कह दो न !
कि मुझे स्कूल न भेजें । मैं नहीं जाऊंगी रिक्शे में स्कूल । निधि अवाक् है..... फिर से ? निधि समझाती/बहलाती है सुधा को । इधर उसके दिमाग में
उथल-पुथल मची है । यह हो क्या रहा है ? आखि़र कब तक ?
क्या पहली बार चुप रह कर ग़लती नहीं की उन्होंने ! इसी बीच उसे पता चला कि वह चौकीदार भी स्कूल में फिर वापस आ चुका है और
नन्हीं को घूर-घूर कर देखता है । निधि का दिमाग़ पूरी तरह घूम रहा था । यह किस
समाज के लोग हैं- खु़ल्ले तेज़ाबी ज़हर पूरे समाज के लिए ! क्या किया जाए इनका ? ख़ैर, तुरन्त तो निधि ने सूरज
को हिदायत दी कि अभी सुधा को स्कूल न भेजे, वह बात करेगी और नन्हीं को भी न भेजे स्कूल अभी । निधि पूरे रास्ते भर
चुप थी वापसी में लेकिन दिमाग़ में चक्रवात था । क्या स्कूल भेजना बन्द करने से समस्या का समाधान हो जाएगा ? और कब तक ? ये दोनों नहीं तो कोई और बच्ची, कोई और नहीं तो कोई और,
फिर ........ राजन समझ चुका था कि क्या
गम्भीर बात हो सकती है निधि की चुप्पी में । दोनों की आपसी अबोली समझ-बूझ थी एक दूसरे के प्रति ।
उस रात
निधि और राजन सोये नहीं पूरी रात और अन्त में तय हुआ एक नैतिक गुनाह – कि बस अब
और नहीं। अब और किसी जि़न्दा लिंग बम को अपने संज्ञान से छोड़नेवाले नहीं हैं
निधि और राजन । चूँकि दोनों अनाथ थे, दोनों की कोई
जि़म्मेवारी भी नहीं थी आगे-पीछे । सोचा- जो होगा अंजाम, देखा जाएगा, पर रोक लगाने / सूरत बदलने की कोशिश हमें करनी ही होगी । इस काम में उन्होंने
सूरज को विश्वास में लिया । शुरुआत की
नन्हीं के गुनहगार स्कूल के चौकीदार से । सूरज बहलाकर उसे निधि और राजन के क्लीनिक लाया । चौकीदार उसी तरह
अनभिज्ञ था अपने साथ होनेवाली दुर्घटना से
जैसे कि मासूम नन्हीं अनजान थी अपने साथ घटने वाले दर्दनाक हादसे की आहट से
। बातों-बातों में इलाज के बहाने बेहोशी
की दवा देकर राजन और निधि ने उस चौकीदार
के जिन्दा लिंग बम को स्थायी रूप से डिफ्यूज़ कर दिया था । अब कभी उसकी सेक्स
की बत्ती न ही जल सकेगी और न ही किसी
मासूम के शील रूपी मोम को जला और गला सकेगी कभी, यही उसकी सज़ा थी । फिर नम्बर आया सुधा को स्कूल ले जाने/लानेवाले रिक्शे
वाले का । उसे लाना आसान था । सूरज उसे भी ले आया था क्लीनिक । उसके साथ भी निधि-राजन ने वही
सुलूक़ किया । दोनों ने कहीं शिक़ायत भी नहीं की । पुलिस से भी नहीं । आखि़र क्या
बताते ? अब तो जो भी घोषित बलात्कारी होते, मामला शत-प्रतिशत पक्का सही साबित होता, उसे छोड़ते नहीं निधि-राजन । किसी भी मामले में कोई
शर्म से मुँह नहीं खोल सका था अब तक । इससे निधि और राजन का साहस भी उसी तरह बढ़ा
था जैसे कि बलात्कार के बाद पकड़ से बच जाने पर किसी बलात्कारी के हौसले बुलन्द
हो जाते हैं सामान्य सिद्धान्त की तरह । लेकिन कितना फ़र्क़ था दोनों पक्षों के
हौसलों में ! निधि और राजन के क्लीनिक
में पिछले साल भर से 25 लिंग-बम डिफ़्यूज़ किये जा चुके थे । निधि-राजन हर ऑपरेशन
के बाद दु:खी भी होते लेकिन एक नि:श्वास लेकर कहते- हमें एक न एक दिन तो जेल जाना
ही है लेकिन यह तय है कि इन पच्चीस जि़न्दा
लिंग बम रूपी बलात्कारियों से हमने न जाने कितनी बच्चियों / महिलाओं को बचा लिया
।
इस बार
निधि-राजन ने कुछ ज़्यादा ही कठोर कदम उठाया था । शायद गॉंधीजी की वह बात सत्य
होने को थी कि पवित्र साध्य के लिए साधन भी पवित्र ही होने चाहिए । ख़बर थी- अमीर घर के 18-25 साल
के चार लड़कों ने सामूहिक बलात्कार किया
चलती कार में एक नाबालिग लड़की का । पुलिस ने रिपोर्ट भी नहीं लिखी दबाव में । ये लड़के जिनका भविष्य अभी बनना था, एक नाबालिक लड़की का भविष्य ख़राब कर चुके थे । उलटे
उसे धमकी भी दे रहे थे कि अगर मुँह खोला तो अश्लील विडिया क्लिप........ । लड़की इलाज के लिए निधि-राजन के क्लीनिक आई थी । लड़की पहचानती थी इन चारों
लड़कों को । ये लड़के पहले भी ऐसी घटनाओं को अंजाम दे चुके थे यानी स्वभाव से
बलात्कारी बन चुके थे । उनके लिए एक नारी की अस्मत को तार-तार करना रोमांचकारी इंद्रिय
सुख के अतिरिक्त कुछ नहीं था । उनमें से
दो लड़कों को राजन उसी पीडि़त लड़की की मदद से अपने क्लीनिक लाने में कामयाब हो
गया था । और फिर उन दोनों जि़न्दा लिंग बमों को भी डिफ़्यूज़ कर दिया गया था । अब
दो शिक़ार और बाक़ी थे । यहीं पर निधि और राजन से ग़लती हो गई । कभी तो होनी थी, कोई तो बहाना बनना था !
उन दोनों लड़़कों के मॉं-बाप को पता चल गया था उन चारों
लड़कों की आपसी बातचीत से (आखि़र कब तक छुपता) ?
बस फिर क्या था । रातों-रात निधि-राजन के खि़लाफ़
ग़ैर-ज़मानती वॉरण्ट,
छापा, गि़रफ्तारी और यह सारा हड़कम्प भरा घटनाक्रम ।
सारे चैनल और उनके पैनल वैसे ही चीख रहे थे –जैसे
उस लड़की के बलात्कार की घटना पर चीख रहे थे । भाषा एकदम समान थी- (1) कौन हैं ये
बलात्कारी दरिन्दे......... (2) देखिए ये दरिन्दे डॉक्टर....... जिन्होंने
लड़कों का पूरा जीवन ख़राब कर दिया । वक़ील वही दलील दे रहे थे, सामाजिक कार्यकर्ता वही समझा रही थी कि कैसे निधि और
राजन को किसी के सेक्स–जीवन को ख़त्म करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती और उन्हें
कड़ी सज़ा अवश्य मिलनी चाहिए । पुलिस के
आला अधिकारी वही बात कर रहे थे कि ‘क़ानून
अपना काम करेगा‘ । और निधि और राजन शान्त सन्तुष्ट पीठ सीधी
किये बैठे थे कि चलो कुछ लड़कियॉं तो बच गईं ऐसी नारकीय पीड़ा झेलने से ! निधि और राजन को पता था कि उनका हश्र एक दिन यही होगा
लेकिन कम से कम वे यह संदेश तो देने में क़ामयाब हो ही गये हैं कहीं न कहीं कि ‘जि़न्दा लिंग बमो !
सम्भालो अपनी अवैध आग़ को;
नहीं तो डिफ्यूज़
कर दिये जाओगे । हम नहीं तो कोई और निधि-राजन पैदा होंगे जो बचाऍंगे मासूम
बच्चियों को महिलाओं को वृद्धाओं को और अब
तो मासूम लड़कों को भी; ऐसे जि़न्दा लिंग बमों से ।
******
नोट: प्रवासी दुनिया डॉट कॉम पर हाल ही में प्रकाशित.
aaadhunik dhatnao se mail khati ye kahani
जवाब देंहटाएंmujhe kahani padna aur likha dono bahut pasand hai
mai aap ke is blog ko follow kr reha hu
स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/05/blog-post_08.html
जवाब देंहटाएंऐसा ही होना चाहिये
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक व सदाशय आलेख प्रहार करता आज की मनोदशा पर व्यवस्था पर ,अतीत पर .......संवेदनाएं मरने लगी हैं/ दर्द अपना हो तो " law of punishment " के मायने अलग और पराया हो तो अलग .....यही विभीषिका संत्रस्त करती है....शुभकामनायें जी /
जवाब देंहटाएंसही तो यही है---पवित्र साध्य के लिए साधन भी पवित्र ही होने चाहिए...बुराई से परहेज़ करें बुराई से नहीं... परन्तु..
जवाब देंहटाएं---यह ठीक उसी प्रकार है जैसे माड्धाड की पिक्चरों में हीरो, पुलिस वाला इन्स्पेक्टर... तन्ग आकर ( यद्यपि प्राय: स्वजन अहित के कारण) सब अपराधियों की दनादन हत्या करता जाता है...और अपराध पर तालियां बजती हैं...
---- यदि किसी भी वज़ह कानून हाथ में लिया है व अपराध हुआ है सज़ा भुगतने को तैयार रहना चाहिये...मिलनी भी चाहिये...अन्यथा समाज में अराजकता फ़ैलने का भय रहता है...
दूसरे स्थान पर ..बुराई= बुरे
जवाब देंहटाएंवाह वाह पुष्पि जी पहले तो कोटिश बधाईयाँ है लो इस आलेख पर बहुत ही संवेदन शील मुद्दे पर लिखा है और बहुत जबरदस्त लिखा है शायद जो भी इसे एक बार पढ़ेगा इससे मिली सीख ,प्रेरणा को नकार नहीं सकेगा कुछ दिल खोल कर प्रशंसा करेंगे वहीँ कुछ दबी ,अटकती जबान में |बहुत पहले रेखा की एक पिक्चर भी इसी तरह की आई थी जो समाज के ठेकेदारों ने चलने नहीं दी ,आप का यह आलेख कहाँ तक लोगों के दिलों तक कितनी दूर तक जाएगा कह नहीं सकती |अगर यह काल्पनिक भी है तो ऐसी कल्पना की हकीकत में जरूरत है बहुत बहुत बधाई इस आलेख के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया. बलात्कारियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए. लेकिन एक निधि और राजन से काम नहीं चलेगा.
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना
जवाब देंहटाएंसत्य कथा ,पट कथा के अधिक नज़दीक है .क्योंकि यहाँ समाधान में भी मौन हिंसा है अलबत्ता उसका स्वरूप बदल गया है . अलबत्ता कहानी परिवेश प्रधान है हमारे आज के समाज का सच है .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंबुधवार, 9 मई 2012
शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
आरोग्य समाचार
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.हटमल
क्या डायनासौर जलवायु परिवर्तन और खुद अपने विनाश का कारण बने ?
क्या डायनासौर जलवायु परिवर्तन और खुद अपने विनाश का कारण बने ?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
सत्यकथा को साझा करने के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंसब को झकझोर के रखने वाली रचना है लिंग बम .बे -शरमो को आइना दिखाती .कुछ करने को प्रेरित करती रास्ता ढूंढती तंग गलियों से बाहर आने का .
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