नया संवत्सर (चैत्र मास से) शुरू होने वाला है । ब्रह्मा जी के परामर्श से विष्णुजी और नारद मुनि मृत्युलोक का जायज़ा लेने निकले हैं । वास्तव में ब्रह्मा जी के कार्यालय में ‘सूचना का अधिकार’ के तहत पिछले दस सालों से लगातार एक ही अपील-केस आ रहा है कि मृत्युलोक में गाय पर फिजि़कल और इमोशनल अत्याचार लगातार बढ़ता जा रहा है । ब़हृमा जी कृपया प्रथम अपील, दूसरी अपील और तीसरी अपील का निपटान करें । इधर कैलास के एपेक्स कोर्ट से भी ब्रहृम- कार्यालय पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा था, आखि़र शिव तो शिव हैं न ! संहार करने से पूर्व अन्तिम विकल्प को भी एक्सप्लोर कर लेना चाहते थे । अब तक अपीलकर्ता के प्रथम आवेदन का भी जवाब नहीं दिया जा सका था । जवाब दो तो मुश्किल और न दो तो पेंडिंग मामला ! सवाल ही ऐसे थे- (1) क्या मृत्युलोक में गौ-वध होता है ? (2) मृत्युलोक के बूचड़खानों की संख्या कितनी है ? (3) उन बूचड़खानों में प्रतिदिन कितने पशुओं को काटा जाता है (4) उनमें कटने वाली गायों की कितनी संख्या है ? (5) क्या वहॉं गौ-वध की राजकीय अनुमति है ? (6) अगर हॉं तो क्या गौ-वध संवैधानिक रूप से अनुमत्य है (7) अगर नहीं तो गौ-वध कानून के तहत कितने दोषियों को सज़ा दी गई है आदि-आदि । एक ख़ास प्रश्न सबसे पहले बोल्ड लैटर्स में पूछा गया है कि क्या किसी ‘लौह-गाय’ का अस्तित्व है ? और अगर हॉं तो गाय और लौह-गाय में क्या अन्तर है ?
पहले गाय की पूजा होती थी फिर जब उनका वध शुरू हुआ तो मंदिरों या पूजा आयोजनों में आरती के बाद लगने वाले उद्घोषों में जैसे – ‘धर्म की- जय हो’ , ‘अधर्म का- नाश हो’, ‘प्राणियों में- सद्भावना हो’, ‘विश्व का- कल्याण हो’ आदि के साथ-साथ ‘गौ वध- बन्द हो’ के उद्घोष भी लगाये जाने लगे । मुगल काल से और उसके बाद जब से भारत आज़ाद हुआ, कुछ साल बाद से ही पहले तो माता सदृश बूढ़ी गायों को आदमी मार कर खाने लगा था और राजा की सभा में उसे न्यायोचित भी ठहराया जाने लगा था कि बूढ़ी गायों का क्या काम ? कम से कम नर-पिशाचों की नगरी के भोजन का तो प्रबन्ध हो उनसे ! राजा तो राजा है न ? पिशाचों की नगरी के नागरिकों के भोजन का प्रबन्ध करना भी तो उसका धर्म है न ! चाहे अशक्त हो चुकी गायों को मारने की अनुमति ले / दे कर । अब ब्रहृम- कार्यालय को जवाब देना मुश्किल हो रहा था कुछ तो देव-लाज (लोक लाज की तरह ) बचानी होगी अब ! और इसलिए स्वर्ग के बोर्ड सदस्यों की बैठक में ब्रहृमा जी के अंतिम परामर्श के बाद विष्णु जी को नियुक्त किया गया इसकी जॉंच के लिए तथा साथ में नारद को सहायक के तौर पर भेजा गया ताकि वे विष्णु जी को मृत्युलोक में हो चुके और हो रहे परिवर्तनों से अवगत करा सकें क्योंकि नारद ही तीनों लोकों में सतयुग से कलयुग तक निरन्तर विचरण करते रहे हैं और पूरी तरह अपडेट हैं तीनों लोकों के विकास-क्रमों और घटनाक्रमों से ।
विष्णु जी और नारद गुज़र रहे है मृत्युलोक से । बताइए प्रभु कहॉं से शुरुआत करूँ ? हे नारद ! गाय और गौ-वध के इस संकट से थोड़ा परिचित तो हूँ ही लेकिन यह लौह-गाय एकदम नई वस्तु है मेरे लिए सो कृपया आप पहले मुझे इसी से परिचित करवाऍं । जो आज्ञा प्रभु ! चलिए सर्वप्रथम मैं आपको वहीं लिये चलता हूँ वैसे भी आज वहॉं ऐतिहासिक हलचल का दिन है । हे मुनिवर ! यह जगमग करता साफ़-सुथरा रास्ता कौन सा है और कहॉं जाता है । क्या आजकल मृत्युलोक के वासियों ने इतना विकास कर लिया है ? इतने चिकने रास्ते ? नारद- हे प्रभु यह चमकीली सड़कें आज़ाद भारत के लोगों ने नहीं बल्कि इस पर शासन करने वाले अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित की गई हैं हालांकि इन निर्माण-कार्यों में मुद्रा-राक्षस यहीं का लगा था । इसे राजपथ कहते हैं और यह सीधा राष्ट्रपति भवन जाता है । वहॉं एक राजा रहता है और उसमें रहने वाला सिर्फ़ नाम का राजा होता है और उसके बदले सारा काम और निर्णय महा मंत्री ही करता है । ऐसा क्यों मुनिवर ? हे प्रभु इसे लोकशाही कहते हैं । हे नारद ! लोकशाही से याद आया ! कुछ दिन पहले मृत्युलोक में लाखों लोग जगह-जगह एकत्र होकर मैं भी अन्ना तू भी अन्ना चिल्ला रहे थे जिसकी ध्वनि से इन्द्र लोक के मनोरंजन में बाधा पड़ रही थी और उर्वशी और मेनका का ध्यान भंग हो रहा था । हे मुनिवर ! यह अन्ना-अन्ना क्या है ? प्रभु ! यह अन्ना एक आम आदमी है जो लोक-शाही लोक-शाही चिल्लाता है और कहता है तानाशाही नहीं चलेगी लेकिन उसे पागल हाथी बता-बता कर लोकशाही के प्रतिनिधि शाहीलोक के तंत्र का मंत्र पढ़ते रहते हैं । दोनों कुछ कदम और बढ़ते हैं । हे नारद ! इस भवन के द्वार पर एक हाथी लालटेन लेकर क्यों खड़ा है और उसे वस्त्र क्यों पहना दिये गये हैं ? और यह काला यंत्र क्या है ? लगता है कोई छोटा-मोटा यान है ? और यह कौन जा रहा है मायूसी से भवन छोड़ कर जैसे उसे निष्कासित कर दिया गया है घर से ? हे लक्ष्मीपति ! यह भूतपूर्व मुखिया हो गया है अब इस लौह-गाय के संयंत्र का जो जि़द कर रहा था कि लौह-गाय को अब दाना-पानी ज़्यादा चाहिए । अब बताइए भला कि गाय भी कभी कुछ मॉंग कर सकती है ? उसमें तो देवताओं का वास है न ! वह तो सिर्फ दाता हो सकती है, याचक होने का तो उसे अधिकार ही नहीं । इसलिए मुखिया को ही हटा दिया गया क्योंकि वह गाय के बारे में भ्रामक तथ्य फैला रहा था । और यह भवन लौह भवन है । जिसे आप हाथी कह रहे हैं वह गार्ड है जो ट्रेन को चलाने/रोकने के लिए लालटेन दिखाता है । आदमी अब सभ्य हो गया है और इसलिए वह भले ही अपने वस्त्र उतारने में न झिझके लेकिन नैसर्गिक हाथी को उसने कपड़े पहना रखे हैं । हॉं यह काला यान जैसा यंत्र लौहयान का इंजन है और अब दसों सालों से इसे और इसके सम्पूर्ण संयंत्र को ही गऊ कहा जा रहा है । आप जॉंच की मदों में से एक इसी ‘गऊ’ मद की जॉंच के लिए मृत्युलोक में आए हैं प्रभु ! किन्तु हे नारद यह तो वह गऊ नहीं है ! गाय चौपाया नहीं लेकिन चौपायों जैसी दिखती ज़रूर है और उसमें तो देवताओं का वास होता है । फिर दोनों की क्या तुलना ?
मैं स्पष्ट करता हूँ प्रभु ! बल्कि देखिए उस कॉफी-होम के टेबल पर देखिए जहॉं तथाकथित वाम-दक्षिण-सेंटर और नो-वेयर बुद्धिजीवी विचारों की जुगाली कर रहे हैं गाय की तरह । आप भी सुनिए प्रभु ! कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ । प्रभु आप तो सिर्फ शब्द ध्वनि सुनिए वाम, दक्षिण, सेंटर या नो वेयर के चक्कर में बिना पड़े । विष्णु जी ने अचरज भरी हामी में सिर हिलाया और चुपचाप श्रवण-पान करने लगे । ‘’गाय तो गाय है भाई जी ! हाड़-मॉंस वाली दूध देती है और लोहे की गाय खन-खन करती मुद्रा देती है । लेकिन मुद्रा तो कनवर्टेबल है जी ! कागज़ की भी बन जाती है प्लास्टिक की भी; और लोहे की तो होती ही है । वो दिन गये भाई जी जब सोने-चॉंदी की मुद्रा चलती थी । तभी तो हमारा देश सोने की चिडि़या कहा जाता था । उस समय शायद ट्रेन को सोने या चॉंदी की गाय कहा जाता । लेकिन अब तो ताम्र-युग भी न रहा । लोहे क्या कोयले तक का युग भी शायद खनन माफिया की भेंट चढ़ जाए । अब तो प्लास्टिक युग है भाई जी ! तभी तो गायें पोलीथिन खाकर मर रही हैं बेमौत । अब हर घर से गाय के लिए पहली रोटी नहीं निकलती, जो समाजवाद के सशक्त उदाहरण की भॉंति हर गाय का स्वच्छ भोजन से पेट भर जाए और वह अपने बछड़ों और फिर हमारे बच्चों को पौष्टिक दूध दे सके ।
और देखिए हुज़ूर ! बेचारी गऊ जैसा सीधा-सादा लौह-यान और संयंत्र । गऊ जो बिचारी सींग भी नहीं मारती चाहे बच्चा भी दुह ले । पहले सीधी-सादी, घरेलू, संस्कारशील और सब कुछ चुपचाप सहन कर लेने वाली लड़की को ‘गऊ’ कहा जाता था । दसों साल बीत गए आजकल लौह-यान का नामकरण भी लोहे की ‘गऊ’ हो गया है । और शिकायत काहे करते हो, प्रमोशन ही तो हुआ है ? जानते नहीं गाय भारतीय संस्कृति में पूज्य है , उसमें छत्तीस कोटि के देवता निवास करते हैं ? सींग तो सींग, पूँछ तक में देवताओं का वास है ? और जानते नहीं गाय के गोबर में परमाणवीय विविकरण की प्रतिरोधी क्षमता है और कैंसर का इलाज भी गाय के इस अवशिष्ट से हो सकता है ? सुना है भला ! कि आदमी का गोबर कभी किसी काम आया हो ? इसलिए आदमी-जात बड़ी श्रद्धा से कहता है – ‘गाय हमारी माता है’ (हम! को कुछ नहीं आता है) । एक और उदाहरण है घिसा-पिटा- ‘बैल हमारा बाप है नम्बर देना पाप है’ आदि- आदि । यह लौह-गाय भी उतनी ही निरीह है भाई-जान ! चाहे जिसके पल्लू बॉंध दी, उफ़ भी न करेगी कभी । जिस खॅूंटे बाँध दी, उसी के बच्चों को दूध पिलायेगी और तो और, उसे अपने बछड़े को भी दूध पिलाने की अनुमति मालिक से लेनी होगी ।
तो क्या निर्णय होता है आज ? क्या अन्तर है गऊ और लौह-गाय में ? भाई जान ! मेरा वोट- कोई अन्तर नहीं । भाई मेरा भी- कोई अन्तर नहीं । कॉमरेड मेरा भी- कोई अन्तर नहीं । विप्रवर मेरा भी मायूस वोट- कोई अन्तर नहीं । सर, सर ! आई हैव आल्सो द सेम व्यू ऑन दिस मैटर- ‘इट सीम्स देयर इज़ नो डिफरेन्स बिटवीन काऊ एण्ड मैटल-काऊ । अन्त में समापन होता है- सो फ्रेण्ड्स ! हियर वी एंड द डिस्कशन ऑन दिस जनरल कन्सेनशस दैट ‘द गाय एंड द लौह-गाय आर द सेम टर्म दो बोथ आर डिफरेंट इन एक्जि़सटेन्स ।
प्रभु ! नारद अचानक लगभग हकबक होकर देख रहे थे विष्णु जी की ओर, जो धम्म से माथा पकड़कर बैठ गये थे ज़मीन पर । नारद जी उन्हें इस हालत में लेकर सीधे ब्रह्माजी के कार्यालय पहुँचे और किसी तरह विष्णु जी ने ब्रह्मा जी को बस यही कहा- प्रभु आपकी सृष्टि के पालनकर्ता के पद से मेरा इस्तीफा स्वीकार कीजिए प्रभु !
(पुष्पी )
कसाई जब सत्ता में हों,तो गाय को हलाल होना ही होता है।
जवाब देंहटाएंसटीक एवं सारगर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद ।
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