कविताऍं
– - कुछ अध्यात्मिक-
(1) बाती
जगर-जगर कर जगर-मगर
जल-जल बुझती मन की बाती
कभी जलाती होली-सी और
कभी सुहाती दीवाली-सी
बाती
तन-रूपी माटी के दीपक
में
प्रकाश-पुंज सी सिमटी
बाती
आकाश-रूप में सूरज ही बन
तन से उड़ जाती औचक ही बाती ।
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(2) विस्तार
विस्तार अगर पाना है तो ख़ुद को लघुतम करना ही होगा
वृक्ष-रूप को पाना है तो ख़ुद बीज रूप में ढलना ही होगा
महामानव बनना ही है तो मानव-अणु बनना ही होगा ।
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