जीयें आप
कितनी मीठी है ये दुआ । कितना सुन्दर है यह आशीष
। ये शब्द झंकृत कर सकते हैं किसी के भी हृदय, मन और आत्मा को ।
शायद जीवन के सबसे बड़े आशीषों में से एक है बल्कि सबसे बड़ा आशीष है । लेकिन जो
जीवन के पार निकल जाए उसके लिए कितनी सार्थक है यह शब्द ध्वनि । शरीर से जीवित रहना ही तो जीवन नहीं है ।
जब भी कोई दीर्घायु होने की दुआ देता है तो लगता
है कि कितनों को सच में लम्बी उम्र की दुआ से आनन्द की अनुभूति होती होगी और
कितने यह सोचते होंगे कि यार पूछ मत ! जीते ही कैसे हैं ? क्यों जले पर नमक छिड़क रहे हो । कैसे दिन काट
रहे हैं, हम जानते हैं और फिर तुम दुआ भी देते हो तो
बद्दुआ की शक्ल में ? हमने बिगाड़ा क्या है आपका जनाब ? लेकिन यह सब आप उस भोले दुआ देने वाले से कह
नहीं सकते । उसकी नीयत तो नेक है न । वह तो यही सोचता है कि जीने की दुआ से उत्कृष्ट
कोई और आशीष हो ही नहीं सकता । अब आपकी कैसे कटती है, यह वह साथ रहकर जाने तो समझे कि ‘जीयें आप’ का मतलब होता क्या
है ।
निश्चित ही वैदिक काल के बाद की सनातन परम्परा
में दीर्घायु होने का तात्पर्य शरीर की लम्बी उम्र से नहीं होता होगा । अमर होने
का मतलब भी शरीर के अमर होने से नहीं होगा बल्कि अपने कर्मों के माध्यम से सूक्ष्म
शरीर के रूप में सशरीर उप िस्थत न होते हुए भी अपने अस्तित्व को दर्ज कराने का
माद्दा रखते हुए मानस में अपनी स्मृति बनाए रखना अमर होना कहलाता होगा । कालान्तर
में जब आत्मा से ऊपर शरीर की महत्ता हो गई होगी और शरीर के प्रति अधिक मोहासक्ति
हो गई होगी, तभी शरीर की अमरता की अवधारणा का प्रचलन हुआ
होगा ।
तो यह शब्द जो जब भी कान में पड़ते हैं ‘जीयें आप’ तो सबसे पहले प्रश्न
उठता है क्या करें अधिक- शरीर रूप में जीकर । अच्छे भोजन के लिए, अच्छे वस्त्रों के लिए, सुविधा के सामानों का उपभोग करने के लिए, इंद्रीय सुखों के लिए, किसके लिए ? और अगर इस सब में भी कोई रुचि न हो तो फिर
किसके लिए ? क्यों ? माना कि थोड़ा
सुविधाजनक जीवन मन की शान्ति के लिए आवश्यक है और जीवन में भौतिक ही नहीं, अध्यात्मिक उन्नति के लिए मन का शान्त रहना
आवश्यक है और आज के आधुनिक सभ्यता वाले समाज में इसके लिए धन की अपरिहार्यता को
नकारा नहीं जा सकता । लेकिन धन जो है, वह मन का भोजन नहीं
बन सकता । मन का भोजन तो अलग-अलग मन की इकाइयों की अपनी व्यक्तिगत रुचि और चयन का
विषय है । किसी का मन अरबों का ऐश्वर्य छोड़कर गरीब बच्चों की ऑंखों की चमक में
अपना अस्तित्व ढूँढता है, किसी को पहाड़ की चोटी फतह करने में आनन्द आता
है, किसी को मूक पशुओं की निस्वार्थ सेवा में जीवन
का आनन्द आता है तो किसी को अपनी जीवन की एक-एक पूँजी धन की, मन की, आत्मा की
अपने किसी ख़ास प्रियजन के लिए खर्च कर देने में असीम आनन्द की अनुभूति
होती है और इसके बदले में उसे क्या चाहिए होता है ? सिर्फ़
अलग-अलग रूप रंग, वर्ग में विभाजित किसी इकाई बच्चा, पशु, रोगी, जीत आदि आदि के रूप में अपने द्वारा चयनित
प्रियजन की मुस्कान, ख़ुशी, संतुष्टि, सुख और अपना कहने के लिए उस प्रियजन का सामीप्य-
शाब्दिक, दैहिक या
आत्मिक । सबके पास अपने-अपने कारण हैं अपनी संतुष्टि के, अपनी-अपनी
मन की शान्ति के कारण के । और अगर मन की शान्ति का कारण न हो, तो अपार
धन सम्पदा या सुख भी उसके लिए कोई ख़ास उपयोगी
नहीं । हॉं और ‘जीयें आप’ तो बिलकुल भी नहीं
। भई यह तो दुआ की शक़्ल में सज़ा हुई ! और सज़ा तो भुगती
जाती है, उसका मज़ा कुछ ख़ास आता नहीं । हॉं कर्मों का
लेखा तो काटना ही है, अगर इस जन्म में भागना भी चाहो तो अगले जन्म
में भुगतना पड़ेगा, फिर क्यों न इसी जन्म को पूरा कर लिया जाए ।
कम से कम पुनर्जन्म में विश्वास रखने वालों को तो इस सत्य पर भरोसा होगा ही ।
तो भई दुआ दो लेकिन ‘जीयें आप’ से अधिक ‘जीयें आप’ के साधन की, सार्थक जीवन की ।
लम्बा जीवन जीने से बेहतर है जितना भी जीया जाये, उसमें
गुणवत्ता हो, सुख भले न हो, पर
संतुष्टि हो, ऐश्वर्य भले न हो पर मन में परिपूर्णता, सम्पूर्णता का भाव हो, मन की दुनिया भरी-पूरी हो । जिसे मिले यह दुआ, उसे लगे कि दुआ मिली है, दुआ की शक़्ल में सज़ा नहीं । ऐसी नायाब सज़ा न
लगे जैसे किसी आस्थावान नास्तिक को ईश्वर की प्रतिमा उपहार स्वरूप भेंट में दी
जाए और वह आस्थावान नास्तिक न तो अपनी धार्मिक अवधारणा को छोड़कर उस प्रतिमा को
पूजास्वरूप ग्रहण कर पाये और न ही विशुद्ध नास्तिक बनकर उस प्रतिमा को फेंक पाए स्वयं से परे । यहॉं उसे देनेवाले
की आस्था का भी तो ध्यान रखना होगा न !
पर क्या हम कई मामलों में, किसी को कुछ भी देते समय उसका, उसकी पात्रता का, उसकी
देश काल परिस्थिति का ध्यान रख पाने में असफल नहीं हो जाते हैं ! और इसी तरह लेते समय अजीब से मन के धर्मसंकट से
नहीं जूझते हैं ! ऐसा हम सब के साथ होता है कभी न कभी, किसी न किसी परिस्थिति में । व्यावहारिक व्यक्ति
इसे एक सामान्य भाषा के लेन-देन से अतिरिक्त
भाव नहीं देता । लेकिन जो सोचता है, वह गुनता भी है और
सुनकर गुनना गहराई में जाकर मन की सतह को छूने जैसा होता है । अच्छा है यह पक्ष
भी कि जो बोला जाए, वही सुना जाए और जो सुना जाए, वही समझा जाए । लेकिन आजकल संवाद का मतलब सिर्फ़
बोलना हो गया लगता है वह भी एकतरफ़ा बोलना, बिना दूसरे की सुने
। सुनना सिर्फ़ सिर हिलाना नहीं होता । सुनने का मतलब यहॉं भी गुनना होता है ।
जहॉं तक पात्रता का संबंध है, वह बेचारी अकेली
सहमी सी खड़ी रहती है, इस बोल-बाल के शोर में । न बोलनेवाले की पात्रता
है, न सुनने वाले की । न समझने वाले की पात्रता है और न ही
समझाने वाले की । फिर सार्थक विमर्श गीता के अध्यायों में कैद होकर रह गया दीख
पड़ता है ।
वैसे
इस जीयें आप ने यह सब लिखवा दिया, क्या आपको भी कभी किसी दुआ, शुभकामना ने धन्यवाद के बदले कुछ और कहने सोचने या करने के लिए विवश
किया है ! ! !
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